वाराणसी: गंगा में डूब गये 20 हजार करोड़ रूपये, बीते तीन साल में और गंदा हुआ गंगा का पानी
वाराणसी: गंगा के किनारे बसा वाराणसी दुनिया के सबसे पुराने शहरों में एक है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यहां से सांसद चुने जाने के बाद हिंदुओं का सबसे प्रमुख तीर्थस्थल बनारस का राजनीतिक महत्व और भी बढ़ गया. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान गंगा की सफाई का वादा किया था. शहर में कई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स स्थापित करना उनकी इस योजना का प्रमुख हिस्सा है. जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि गंगा में पानी की कमी जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है और इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
लोगों की चिंता वाजिब है. बनारस में गंगा का पानी समय के साथ लगातार खराब होता गया है. गंगा की धारा में सफाई गुणवत्ता संकेतक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया जनवरी 1988 में प्रति 100 मिलीग्राम पानी में 14,300 मापा गया था. यह बढ़कर जनवरी 2008 में 1,40,000 हो गया और जनवरी 2014 में यह 24 लाख के बेहद उच्च स्तर तक पहुंच गया. गंगा नदी को “संरक्षित, स्वच्छ और कायाकल्प” करने के लिए पीएम मोदी की 20,000 करोड़ रुपये की “नमामि गंगे” परियोजना अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रही है.
आईआईटी-बीएचयू के प्रोफेसर वी एन मिश्रा, जो प्रसिद्ध संकट मोचन मंदिर के महंत भी हैं की अध्यक्षता में संकट मोचन फाउंडेशन (एसएमएफ) के द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि पानी की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने वाले महत्वपूर्ण मापदंडों कोलीफॉर्म बैक्टीरिया और जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई 2015 में परियोजना शुरू करने पर गंगा की निर्मलता (स्वच्छता) पर परिणाम प्राप्त करने के लिए एक महत्वाकांक्षी 2019 की समय सीमा निर्धारित की थी लेकिन केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले साल यह समय सीमा मार्च 2020 तक बढ़ा दी थी.
बता दें कि गैर-सरकारी संगठन एसएमएफ 1986 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी द्वारा गंगा एक्शन प्लान की शुरूआत के बाद से गंगा के पानी की गुणवत्ता की निगरानी कर रहा है. गंगा के लिए एक प्रहरी के रूप में काम करते हुए एसएमएफ ने अपनी प्रयोगशाला स्थापित की है. जिसका उद्देश्य मात्र है नियमित आधार पर गंगा जल के नमूनों का विश्लेषण करना. तुलसी घाट पर एसएमएफ की गंगा प्रयोगशाला द्वारा एकत्र किए गए डेटा ने उच्च जीवाणु प्रदूषण के कारण गंगा के स्वास्थ्य की एक उदास तस्वीर चित्रित की है. कोलीफॉर्म ऑर्गन 50एमपीएन (सबसे संभावित संख्या) / 100एमएल पीने के पानी में कम और 500 एमपीएन / 100एमएल बाहरी स्नान पानी में होना चाहिए, जबकि बीओडी 3 एमजी या एक से कम होना चाहिए. एसएमएफ के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2016 में फेकल कोलीफॉर्म काउंट 4.5 लाख (नगवा में अपस्ट्रीम) और 5.2 करोड़ (वरुणा में डाउनस्ट्रीम) से बढ़कर 3.8 करोड़ (फरवरी में) और 14.4 करोड़ (डाउनस्ट्रीम) हो गया.
इसी तरह जल गुणवत्ता का एक अन्य मानक बॉयोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) है. बीओडी, कार्बनिक पदार्थों को तोड़ने के लिए जरूरी घुलित ऑक्सीजन की वह मात्रा है, जिसकी जैविक प्राणियों को जरूरत होती है. अपशिष्ट जल शोधन संयंत्रों की प्रभावशीलता जांचने या किसी जलाशय में कार्बनिक प्रदूषण, जैसे सीवेज की मात्रा का पता लगाने में इसे एक मापक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. बीओडी स्तर जनवरी 2016-फरवरी 2019 के दौरान 46.8-54एमजी / ’ से 66-78एमजी / तक बढ़ गया है। इसके अलावा भंग ऑक्सीजन का स्तर, जो 6एमजी /1 या अधिक होना चाहिए उसके उपर तक चला गया है. इस अवधि के दौरान 2.4एमजी /1 से 1.4एमजी / ’ तक पहुंच गया.
पर्यावरण वैज्ञानिक और बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी ने कहा कि फैकल कोलीफॉर्म वार्मबल्ड जानवरों के आंत और मल में मौजूद है. नतीजतन, ई कोलाई कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की प्रजाति माना जाता है, जो मल प्रदूषण और रोग पैदा करने वाले रोगजनकों की संभावित उपस्थिति का सबसे अच्छा संकेतक है. गंगा के पानी में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की उच्च उपस्थिति मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है.
मोदी सरकार ने जापान सरकार से बनारस में बुनियादी सुविधाओं के आधुनिकीकरण में सहयोग मांगा था. अगस्त-सितंबर, 2014 में प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा के दौरान वाराणसी और क्योटो के बीच एक पार्टनर सिटी एफिलिएशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर हुए. इस समझौते का उद्देश्य बनारस के आधुनिकीकरण के लिए जापान से तकनीक और विशेषज्ञता का सहयोग लेना है. आधुनिकीकरण में जल प्रबंधन और सीवेज सुविधा को उन्नत करना, अपशिष्ट प्रबंधन और शहरी परिवहन शामिल हैं. हालांकि अफसोसजनक बात ये है कि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि बनारस का पानी कब तक क्योटो जितना साफ हो सकेगा.