आज का प्रात: संदेश शारदीय नवरात्रि के द्वितीय दिवस पर विशेष
आचार्य अर्जुन तिवारी की कलम से
ब्रह्मचारिणी देवी ! नारी शक्ति की महत्ता को उद्दीपित करता हुआ पराअम्बा जगदम्बा , जगतजननी , मणिद्वीप निवासिनी , भगवती आदिशक्ति की आराधना का पर्व नवरात्रि मानव जीवन को प्रतिदिन एक नई ऊर्जा एवं ज्ञान से परिपूर्ण करता है।नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति के नौ रूपों की आराधना की जाती है। इन्हीं नौ रूपों में पूरा जीवन समाहित है।प्रथम रूप शैलपुत्री के रूप में जन्म लेकर महामाया का दूसरा स्वरूप “ब्रह्मचारिणी” है।ब्रह्मचारिणी का अर्थ होता है तपश्चारिणी अर्थात तपस्या करने वाली।महामाया ब्रह्मचारिणी नें घोर तपस्या करके भगवान शिव को अपने पति के रुप में प्राप्त किया और भगवान शिव के वामभाग में विराजित होकर के पतिव्रताओं में अग्रगण्य बनीं।कन्या रूप में ब्रह्मचर्य का पालन करना तपस्या करने के बराबर है।हिमालय के यहाँ जन्म लेकर भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए महामाया ने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कठोर तपस्या करते हुए भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करके यह दिखाने का प्रयास किया है कि अबला कही जाने वाली नारी यदि नियम पूर्वक किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प ले ले तो असंभव कुछ भी नहीं है।अपनी तपश्चर्या को आधार बनाकर महामाया ने भगवान को प्राप्त करके उनके वामभाग में विराजित होकर पवित्रताओं में अग्रगण्य बनीं।एक नारी का जीवन तपश्चारिणी का ही होता है।एक नारी का सम्पूर्ण जीवन तपस्या करते ही व्यतीत हो जाता है।जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर पाती हैं उनका समाज में सम्मान नहीं होता है।अपने शील , संस्कार एवं तपश्चर्या के बल पर ही हमारी मातृशक्तियों ने सूर्य की गति को भी स्तम्भित कर दिया था।उसी प्रकार नियम संयम का पालन करके प्रत्येक नारी ब्रह्मचारिणी हो सकती है।आज पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव एवं अपने संस्कारों को तिलांजलि दे देने के कारण समाज जिस प्रकार होता जा रहा है उसमें महामाया “ब्रह्मचारिणी” के पदचिन्हों का अनुसरण करने वाली मातृशक्तियां बिरले ही मिलेंगी।हो सकता है कि हमारी बातें थोड़ी कड़वी लगें परंतु जिस प्रकार का समाज बनता जा रहा है उस परिवेश में सत्यता यही है।यह हमारे देश की दिव्यता ही है कि समाज की सोंच परिवर्तित होने के बाद भी आज भी नारी अपना पूरा जीवन एक तपस्विनी की ही भाँति व्यतीत करती है।अपने जन्म से ही कन्यारूप में अपने छोटे भाईयों को सम्हालना एवं घर के छोटे – मोटे कार्य करना प्रारम्भ करने वाली नारी अपने बालरूप से ही तपस्यारत हो जाती है।विवाहोपरांत जब वह एक अन्जान परिवार में जा मिलती है तो वहाँ के अनुसार स्वयं को ढालने में उसे अपनी कई आदतों एवं इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है।तपस्या का दूसपा रूप त्याग ही है।त्याग एवं तपस्या का अनूठा उदाहरण तब देखने को मिलता है जब एक नारी माँ बनकर अपने शिशु का पालन करते समय अपनी भूख – प्यास एवं आवश्यक आवश्यकताओं का भी त्यीग करके एकाग्रता से करती है।यही ब्रह्मचारिणी का वास्तविक अर्थ है जो कि प्रत्येक नारी में परिलक्षित होता है।ब्रह्मचारिणी स्वरूपा सभी मातृशक्तियाँ वन्दनीय एवं पूज्यनीय हैं।हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि :- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” अर्थात जहाँ नारी के समस्त स्वरूपों का सम्मान एवं आदर होता है वहां के लोग देवस्वरूप होते हैं।नारी अपने सभी स्वरूपों में पूज्यनीय है।
नवरात्रि का पर्व मनाते समय साधकों को महामाया के एक – एक स्वरूप की पूजा करते समय उसके रहस्य को भी समझने की आवश्यकता है , क्योंकि इसका रहस्य जाने बिना पूजन करना व्यर्थ ही है।