March 12, 2025

भीड़ में गुम होती जिंदगियां और सड़क हादसों का दंश….

20250216_010625.jpg

भीड़ में गुम होती जिंदगियां और सड़क हादसों का दंश….
हर सुबह अखबार के पन्नों पर छपी खबरें हमें यह एहसास कराती हैं कि हम भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं। यह भीड़ कभी रेलवे स्टेशनों पर उमड़ती है, कभी राशन की दुकानों पर, कभी किसी धार्मिक आयोजन में तो कभी नौकरी की कतारों में। हम हमेशा भागते रहते हैं-कभी ट्रेन पकड़ने के लिए, कभी सड़क पार करने के लिए, कभी अपनी बारी के इंतजार में। लेकिन इस दौड़ का अंत कहां है?

जब भीड़ इंसान को लील जाती है
भीड़ सिर्फ संख्या नहीं होती, यह एक अनियंत्रित ताकत बन जाती है, जो व्यवस्था को चुनौती देती है। हाल ही में प्रयागराज के महाकुंभ की तैयारियों के बीच दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर बढ़ती भीड़ और ट्रेनों की अव्यवस्था के कारण एक बड़ा हादसा हुआ, जिसमें एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हो गए। मौत भी हुई, बेहोशी की हालत में महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को ट्रेन की बोगियों से बाहर निकाला गया। हर बार की तरह सरकारों के दावे आए, केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि स्थिति सामान्य है, यात्रियों को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए विशेष ट्रेनें चलाई गई हैं। लेकिन क्या इससे हालात बदल जाएंगे?

भीड़तंत्र का यह हाल क्यों है? आखिर हम कब तक भीड़ के जाल में फंसते रहेंगे? क्या हमने खुद को केवल एक कतार में खड़े रहने के लिए ही बना लिया है? राशन की लाइन, सिम खरीदने की लाइन, परीक्षा फॉर्म जमा करने की लाइन, शराब की दुकान पर लगी लाइन, नौकरी की लाइन, कोविड के टीके की लाइन—क्या हमारा जीवन इन्हीं लाइनों में खड़े-खड़े खत्म होने के लिए है?

सड़क हादसे: रफ्तार की मार
भीड़ की ही तरह, सड़क हादसे भी हमें हर दिन एक नया दर्द दे जाते हैं। ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब कोई भीषण सड़क हादसा न हो। तेज रफ्तार से भागती गाड़ियां, नियमों को ताक पर रखती लापरवाह ड्राइविंग, प्रशासन की ढीली पकड़, और लापरवाह पैदल यात्री-इन सबके बीच हर साल लाखों लोग अपनी जान गंवा बैठते हैं।

उत्तर प्रदेश से लेकर देश के अन्य हिस्सों में सड़क हादसे एक स्थायी समस्या बन चुके हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो हर साल सड़क दुर्घटनाओं में लाखों लोग मारे जाते हैं, लेकिन इसकी गंभीरता को न सरकार समझती है, न आम नागरिक। हर बार हादसे के बाद जांच बैठती है, रिपोर्ट बनाई जाती है, कुछ लोगों पर कार्रवाई भी होती है, लेकिन असली जिम्मेदार हमेशा बच निकलते हैं।

समाधान क्या है?
समस्या का हल सिर्फ सरकारों के पास नहीं, बल्कि हमारे अपने हाथों में भी है। हमें खुद समझना होगा कि भीड़ से बचने के लिए खुद को व्यवस्थित करना होगा। हमें सड़क पर अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हर बार हादसे का शिकार कोई और होता है, लेकिन अगली बारी हमारी भी हो सकती है।

एक मां का इंतजार, एक घर की उम्मीद
सड़क हादसे के बाद एक मां अपने बेटे का इंतजार करती है, एक बहन अपने भाई की राह तकती है, एक पत्नी अपने पति की सलामती की दुआ मांगती है। लेकिन अगर हमारा लापरवाह रवैया और प्रशासन की ढील जारी रही, तो ये इंतजार और दुआएं अधूरी ही रह जाएंगी।

अब वक्त आ गया है कि हम अपनी जिम्मेदारी समझें। क्योंकि सरकारें सिर्फ जांच कराएंगी, फाइलों में रिपोर्ट दब जाएंगी, कुछ मुआवजे बांटे जाएंगे और फिर हम भूल जाएंगे। लेकिन उन घरों का क्या, जिनके दरवाजे पर अब कोई लौटकर नहीं आएगा? क्या हम फिर से किसी नई लाइन में लगने के लिए तैयार हैं?

Discover more from KKC News Network

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading